ढूंढती हूँ मैं कुछ यहाँ, कुछ वहां
कभी अलमारी में देखा, कभी छज्जे पे
तिन के डब्बों में भी देखा झाँक कर
याद आता है कहीं रखा था संजो के
क्या बताऊँ सहेली, खुद को भूल गई हूँ,
कहीं छोड़ आई हूँ. किसी किनार
किसी घाट पे, किसी मंदिर में,
किसी नैय्या में मैं थी सवार
कभी अलमारी में देखा, कभी छज्जे पे
तिन के डब्बों में भी देखा झाँक कर
याद आता है कहीं रखा था संजो के
क्या बताऊँ सहेली, खुद को भूल गई हूँ,
कहीं छोड़ आई हूँ. किसी किनार
किसी घाट पे, किसी मंदिर में,
किसी नैय्या में मैं थी सवार